Tuesday, July 7, 2009

पहाड़ सूख रहे हैं...

प्रकृति अपनी गोद में कई नायाब तोहफे सज़ाई हूई है। ये तोहफे जितने मनोहारी है उतने ही अचरजों से भरे हुए है। उत्तर के सदूर पहा़ड़ी ॿेॼ इसकीा एक अनौखी मिसाल है जिसके हर पडाव पर सौदंयॻ का एक अलग रुप दिखाई देताी है। इन्ही अचरज़ो को समेटने हमने उत्तराखण्ड की धरती पर कदम रखा। इस दौरान मैं पहाड़ों की उस संस्कृति से रुबरु हुआ जिसमें सौम्यता... विश्वास और शालीनता रची बसी है। जिसने इस परंपरा को आज तक जीवीत रखा है। जैसे ही काठगोदाम के ऊपर की ओर हमारा कारवां बड़ता जा रहा है वैसे-वैसे ही ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों पर छाती धुंध मन को सूकून दे रही है। ऐसा लग रहा था मानों तालों की नगरी नैनीताल बाहें फैलाए हमारा स्वागत कर रही हों। सफर के दौरान जिस बात ने मन को सबसे ज्यादा आहत किया वो था तालों की बदहाली । बेतरतीब तरीके से तालों पर कुड़ा बिखेरा गया है और जिस तरीके से नालों का गंदा पानी सीधा तालों में जा रहा है उसने न केवल तालों को गंदा किया बल्की इनके सूखनेे का भी एक बड़ा कारण बना।कभी अपनी खूबसूरती के लिए दुनिया भर में मशहूर सात तालों में से आज केवल तीन ताल बचे है। भीम ताल 30 फिसदी से भी ज्यादा सूख चुका है। नैनीताल का जल स्तर भी घटा है। ये स्थिति पर्यावरण के चक्र में आते गंभीर बदलाव की ओर इशारा कर रही है। तालों की नगरी में कुछ दिन बिताने के बाद काफीला रवाना हुआ अल्मोड़ा की ओर ये मेरा होम टाऊन है सो इसके बारे में मेरी जिग्यासा बड़ना स्वाभाविक है। मुझे मालूम था की अल्मोडा का गला प्यास से सूख रहा है। लेकिन रास्ते में हूई बारिश ने कुछ ढांढस बंधाया। लेकिन अफसोस हकीकत वैसी की वैसी ही थी। कई समय से बारीश नहीं हूई है। शहर की प्रमुख नदीा कोसी भी सूखी मिली। सोचीए कैसी विडंबना है... मैदानो को पानी देने वाले पहाड़ पानी के बीना बैबस से नज़र आ रहे है। शकले बदल रहीं थी लेकिन तस्वीर एक ही सच बयां कर रही थी। पहाड़ सूख रहे है। और इसके लिए जिम्मेदार हम लोग जिसने पयाॻवरण को अपने मनमुताबीक मोड़ना चाहा। इस बात से बेखबर अपने में मस्त है। जवाब में प्रकृति का कोप हम सबके सामने है। जिन पहाड़ों में भगवत संदेश गुंजा करते है। जो योगी- मुनि तपस्वीयों की भूमी है आज वहां जीवन के लिए जल और जल के लिए जद्दोजहद अब भी जारी है। आज पानी के लिए आंदोलन हो रहे है। लोग सड़कों में उतर कर पानी की मांग कर रहे है। कई किलो मीिटर तय कर महिलाएं तो क्या बच्चे भी पानी इक्कटठा करने में जुटे हुए है। इंसानो के लिए पानी नहीं है तो पानी के अभाव में जानवर भी जिंदगी की जंग हार रहे है। ये पहाड़ों की मनोहारी तस्वीर का वो दुखद पहलू है जो मन को गहराईयों तक आहत करता है।

Saturday, January 3, 2009

हम में अलगाव क्यों है

कल हमारे एक रिस्तेदार हमारे घर आये । उन्हे बड़े ही सम्मान के साथ बिैठाया गया...ठंड बहुत थी ऐसे में भला गमॻ चाय की चुस्की का लालच किसको न होता। इसलिए चाय पेश की गई और फिर शुरु हुआ चुस्कीयों के बीच बात चीत का सिलसिला... वो अपने ज़माने की बात कर रहे थे और हम अपने ज़माने को डिफंेड करते जा रहे थे। जी हां डिफें़ड... हमने सांइस टेक्नालाजी की बात की तो उन्होने सभ्यता और संस्कार की। बातों ही बातों में अचानक उन्होने अपने ज़माने का एक किस्सा छेड़ दिया। हिमालय के कुमाऊँ में जब बफॻ पड़ती थी तब लोग कई- कई दिनों तक दूसरों के घर ही रहा करते थे। घुटनों घुटनों तक लदी बफॻ आदमी को असहाय कर देती थी। गरीबी थी... लेकिन संस्कार इंसान पर उससे भी ज़्यादा हावी थे। दिल्ली में भी लोग एक कमरे में दस-दस आदमी अपने दिन गुजारा करते थे। और आज आप एक दिन भी टीके रहें तो आप उसी में अपना सम्मान समझीये। इस बीच उनके मुख से जो शब्द निकले शायद वो इस किस्से का ही नहीं बल्की उस पूरी बहस का सार थे जो प्राय हम लोगों के बीच अक्सर सुनने को मिलती है। ज़माने में लोगों में इतना अलगाव क्यों है। उन्होने कहा की उस समय गरीबी ये सबको एक कर रखा था। सबका स्तर लगभग एक सा था। सबके खचेॻ सीमित थे और सबकी कमाई भी। पर अब मध्यवगॻ जितनी तेज़ी से आगे बड़ा हमारे बीच खाई भी उतनी तेजी से बड़ती गई। बड़ा छोटा और अच्छे की नई परिभाषाएं गढ़ी गई। इसलिए परिवारों के बीच विघटन शुरु हुआ। ये प्रक्रिया जारी है। अन्त न जाने क्या होगा। इतना कहना था की हमने अपनी चचाॻ समेट ली और अपनी चचाॻ को समाप्त किया। क्या वाकई ये ही हमारे बीच अलगाव का कारण है या कुछ और भी है...